Wednesday, September 7, 2011

हमारी संवेदना

उसकी पूरी पीठ पसीने से तर हो चुकी थी फिर भी रिक्शा तेज़ी से चला रहा था, वजह शायद मुझ पहाड़ी से ज्यादा पैसे ऐंठ लेने की ख़ुशी ही थी। मैं औफ़िस के काम से दिल्ली गया था ।

" तुम हम पहाड़ियों को पहचान कैसे लेते हो?"

" धंधा है बाबूजी, वैसे यहाँ के 50/- ही लगते हैं, आपसे भला ज्यादा क्यों लेंगे ।"

जून की दोपहरी सड़क गर्मी से ताप रही थी। मेरा रिक्शा पुरानी दिल्ली की और बढ़ा । अनायास ही मेरी नज़र सड़क की किनारे पड़े एक जर्जर शरीर पर पड़ी जो लगभग नंगा था। कपड़ों के नाम पर बस एक छोटी सी लंगोटी थी। काला रंग, खुली आँखें, खुले होंठों से बहार झांकते हुए पीले दांत। शायद वो काफी देर पहले मर चुका था । कुछ मक्खियाँ उसके होंठों पर चिपके खाने को खा रही थी।कौन होगा ये बेचारा, ये सोचता हुआ मैं आगे निकल गया ।

कितने ही लोग वहां से गुज़ारे होंगे और उसको वहां पड़ा देखा होगा पर किसी ने भी दो गज़ कपडे से उसे ढकने का सहस तक नहीं किया, और मैं भी इसका अपवाद नहीं था । क्योंकि हमसब बहुत व्यस्त हैं हमारे पास वक़्त ही कहाँ है ? मैं वहां से निकल गया पर फिर भी वो चेहरा मेरी आँखों के सामने घूम रहा था।

एक घंटे बाद मैं फिर उसी रास्ते वापिस आया, वो शरीर वहीँ पड़ा था । किसी ने शायद मुझे निरुत्तर करने के लिए उसका बदन एक कपडे से ढांप दिया था। पर उसकी खुली आँखें आसमान के तरफ देखती हुयी अभी भी किसा का इंतजार कर रही थी, शायद .............. म्युनिसिपैलिटी की गाड़ी का ।